Tuesday, November 23, 2010

deepak ji

पौराणिक आख्याओं के अनुसार राजा दशरथ को ढलती आयु में सन्तानोत्पति में असमर्थता दिखने लगी तो गुरू वशिष्ठ का सत्परामर्श ग्रहण करते हुए श्रृंगी ऋषि से यज्ञ सम्पन्न कराया गया तो पुत्रोष्ठि यज्ञ के विशेषज्ञ माने जाते थे। ऋषिवर ने गहन अनुसंधान के पश्चात् सोम और अग्नि प्रधान तत्वों को खोज निकाला जो व्यक्ति की दुर्बलता को मिटाते और वंश वृद्धि में सहायक सिद्ध होते हैं। ऋग्वेद में इन्हीं को वरूण और मित्रा नाम से संबोधित किया गया है। नपुंसकता दुर्बलता का ही पर्याय है। ऋषि ने सबलता प्रधान बनौषधियों का प्रयोग उस यज्ञ में किया जिसके फलस्वरूप रानियों ने गर्भधारण किया और सुसंस्कारी संतति का सुख पाया।
’इम्पोटैन्सी इन आयुर्वेद‘ नामक निबंध में डा० एस० प्रभाकर लिखते है कि अंग्रेजी का इम्पोटैंसी शब्द व्यक्ति में शक्ति (पोटेन्सी) की क्षीणता की ओर संकेत करता है। जहाँ आन्तरिक दुर्बलता रहेगी वहाँ दाम्पत्य जीवन में संतति का सुख नहीं मिल सकेगा। उनकी दृष्टि में नपुंसकता मात्रा शारीरिक रोग ही नहीं, बल्कि मानसिक भी होता है। आयुर्वेद में संकल्प को शक्ति का अति महत्वपूर्ण स्रोत माना गया है। किसी कार्य विशेष को पूरा करने की आन्तरिक उल्लासपूर्ण अभिलाषा को संकल्प कहा गया है। इच्छा, काम के अधीनस्थ क्रियाशील रहती है। काम को धर्म, अर्थ, मोक्ष की भाँति व्यक्ति के पुरुषार्थ की श्रृंखला में गिना जाता है। स्त्री-पुरुष साहचर्य का क्रम इसी के आधार पर चलता है।

मानवी काया की उत्पत्ति मोह, इच्छा और द्वेष के भले-बुरे कार्यो के समुचित स्वरुप से हुई है। काम की गणना भी उन्हीं के अन्तर्गत की जाती है। इसलिए काम को मानवी उत्पत्ति में विशेष रूप से उत्तरदायी माना गया है। वात्सायन के अनुसार काम को दो भागों में विभक्त किया जाता है। एक सामान्य और दूसरा विशेष। विशेष के भी दो रूप हैं- अप्रधान और प्रधान। दाम्पत्य जीवन में दोनों को ही क्रियान्वित होते देखा जा सकता है। प्रधान काम सांसारिक सुखों का अनुभव कराता है। काम की विशिष्ट अवस्था ’क्लैव्य‘ कहलाती है। क्लैव्य को दूसरे शब्दों में ’धवजभंग‘ भी कहकर पुकारा जाता है। जो मनुष्य को शिश्नोदर जीवन शैली सिखाता है। चरक के मतानुसार इसी को ऊर्ध्वगामी बनाने और आरोग्य जीवन का लाभ लेने की आवश्यकता है। सुश्रुत ने इसी को शुक्रक्षयज्ञ क्लैव्य कहकर संबोधित किया है। भेषजन्य रत्नावली में धवजभंग चिकित्सा का विस्तृत विवेचन किया गया है किन्तु गहनतापूर्वक अध्ययन करने से क्लैव्य की समस्त विशिष्टताओं के बारे में ज्ञात होता है।

वस्तुतः क्लैव्य का मूलाधार एटियोलॉजी यानी कार्यकरण तत्व ज्ञान का है। अर्थात् रोगों के कारण और निवारण का विशेष रूप से उल्लेख है। सहज क्लैव्य में नपुंसकता के लिए जन्मजात लक्षण उत्तरदायी होते है। मानसिक क्लैव्य में मादा संगी-साथी की अरुचि समाहित है। अविश्वास, बलात् विवाह नारी की आकर्षणहीनता तथा रोगी होने का भी कारण हो सकता है। शुक्रक्षयजन्य क्लैव्य व्यक्ति की अतिकामुक वृत्ति के कारण होता है। घी-दूध जैसे पुष्टिवर्धक खाद्य पदार्थो की अभावग्रस्तता से भी नपुंसकता प्रकट होती दिखती है। मेध्ररोगज क्लैव्य की उत्पत्ति नर-मादा के प्रजनन अंगों में संक्रामक रोग का भी हो सकता है। शुक्रस्म्भज का रोग इसलिए उत्पन्न होता है कि व्यक्ति मजबूरी में स्वयं को ब्रह्मचारी समझने और कहने लगता है। चरक के अनुसार नपुंसकता का मुख्य घटक कामनाओं को दबाने का ही हो सकता है। पित्तज में शरीर के भीतर नमक की मात्राा का अधिक होना तिक्त और चटपटा भी हो सकता है। सुश्रुत ने इसे आहारजन्य दुर्बलता बताया है। सुश्रुत-संहिता २/३८ में ऐसे पुरुषों का भी उल्लेख है जो स्त्रियों को देखकर, उनकी आवाज को सुनकर, स्पर्श और चिन्तन करने पर शक्ति का क्षय कर बैठते हैं जिन्हें शन्द के नाम से संबोधित किया है।

शरीर में शुक्राणुओं की अभावग्रस्तता के कारण ही व्यक्ति को दुर्बलता आ घेरती है। चरक ने इन्हें आठ वर्गो में विभाजित किया हैं-द्विरेता, पवनेन्दि्रय, संस्कारवाही, नरसन्द, वक्री, इर्षियाभिरत और वटिकशन्द आदि। द्विरेता की कायिक संरचना ही कुछ ऐसी होती है जिनमें नर-नारी दोनों में विपरीत लक्षण उभर कर आते है। यानी नर में नारी और नारी में नर जैसे लक्षण दिखने लगते हैं। पवनेन्दि्रय में शुक्र बनता ही नहीं है। संस्कारवाही में चिकित्सा के उपाय-उपचार सुझाकर शक्तिशाली बनाया जा सकता है। नर शिन्द और नारी शिन्द में विपरीत लिंग की विशेषताएँ प्रकट होने लगती है। वक्री में पिता के शुक्र दोष के कारण जननेन्दि्रय मुड जाती है। ईर्ष्याभिरत और सुश्रुत का इर्षियाक दोनों में समानता है। वाटिकाशन्द में वायु और अग्नि तत्व के प्रकोप से अण्डकोष ही समाप्त हो जाते हैं उक्त लक्षणों के कारण व्यक्ति में काम तत्व की जागृति नहीं हो पाती है। इसलिए सन्तानोत्पादन का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता है। यह क्लैव्य का विस्तृत वर्णन है।

क्लैव्य रोग की उत्पत्ति के कारणों को तीन रूपों में देखा जा सकता है- मेथ्प्ररोगस, शुक्रक्षय और उपघात। स्त्रिायों में अर्थवदुस्त्राी और गर्भाशयदुस्थी तथा बीजभंग में कमी के कारण नपुंसकता आती ह। चरक के अनुसार क्लैव्य की स्थिति स्त्राी पुरुष सहचर्य में अरुचि के कारण उत्पन्न होती है। काम की भी जीवन में आवश्यकता है। वात्सायन ने दिशा सार्थक होने पर मानस क्लव्य को उपयोगी सिद्ध किया है। जिसकी दस अवस्थाएँ होती है। (१) चक्षु प्रीति प्राथमिक अवस्था है जो किसी सुन्दर विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होकर कायिक संबंध बनाने की अभिलाषा रखता है। (२) मानससंग में उसके साथ रहने की मनोभूमि बनना आरंभ करता है। (३) संकल्प-संबंध बनाने का दृढ निश्चय कर बैठता है। (४) निद्रचेष्टा निरंतर चिन्तन करते रहने से नींद भी नहीं आती है। (५) तनुतवांछित संगी साथी के पाने की याद में भूख-प्यास भी गायब हो जाती है। (६) विषयविह व्यावृत्ति- उसे संसार का कोई भी घटनाक्रम नजर नहीं आता। (७) लज्जानाश- इस अवस्था में व्यक्ति इतना पागल हो जाता है कि उसे दुनियाँ के लोगों की भी परवाह नहीं रहती है। उन्मद बुद्धि की अस्थिरता आने लगती है। (८) मूर्छा- मानसिक अस्वस्थता आ घेरती है। (९) मरनम्- व्यक्ति आत्म-हत्या करने पर उतारू हो जाता है जब उसे मनवांछित साथी नहीं मिलता।

क्लैव्य रोग के परीक्षण की दस विध परीक्षा का भी उल्लेख है- (१) विकृति परीक्षा- बीमार की श्रेणी को ध्यान में रखते हुए ऊतकों की जाँच और रोगी की भूतकालीन स्थिति का अवलोकन किया जाता है। (२) प्रकृति परीक्षा- कफ प्रकृति के लोगों में संतान उत्पन्न करने की सामर्थ्य होती है। वात प्रकृति के नपुंसकता का शिकार बनते है। जब तक अपानवात का दोष उनमें रहता है संतान नहीं हो सकती। पित्त प्रकृति में और भी अधिक जोखिम रहती है। (३) सर परीक्षा- शुक्र की शक्ति अपरिमित है। प्रवर, मध्यम, अवर की स्थिति जानकारी धातुओं से हो जाती है। (४) समाहन परीक्षा- इसमें जननेन्दि्रया की पूर्ण परीक्षा की जाती है। (५) सत्यम परीक्षा- शुक्र के विपरीत आहार ग्रहण करने वालों की होती है। कटु, अम्ल, लवण, रस, रूक्षगुण आदि को देखा जाता है। जो क्लैव्य की ओर उन्मुख होते हैं। (६) सत्व परीक्षा- हीन सत्व वाले लोग की मानसिक क्लैव्य की पीडा सहते है। सो इसका भी परीक्षण जरूरी है। (७) आहार शक्ति परीक्षा अनुपयुक्त और अशक्त आहार ग्रहण करने से शरीर की पाचन और चयापचय क्रिया कमजोर होने लगती ह जिसके फलस्वरूप धातुओं का क्षय होने लगता है। क्षयजन्य क्लव्य इसी का दुष्परिणाम है। (८) व्यायाम शक्ति परीक्षा- इससे शरीर की मांसपेशियों और ऊतकों की सामर्थ्य की जानकारी मिलती है। (९) वय-परीक्षा- जराजन्य क्लैव्य के कारण भी इन्दि्रयाँ शिथिल पड जाती हैं सो इसका परीक्षण भी किया जाये। (१०) प्रमाण परीक्षा- प्रजनन शक्ति के पूर्ण परीक्षण की अवस्था है।

परीक्षणोपरान्त क्लैव्य रोग का उपचार कैसे हो? इस संदर्भ में महर्षि चरक ने अतिसुन्दर मार्गदर्शन ही नहीं बल्कि उपयुक्त उपचार भी सुझायें है। उनकी दृष्टि में नपुंसकता का रोग कोई असाध्य नहीं है। ’हेतु विपरीत चिकित्सा‘ उन्हीं की देन है। ब्रिम्हन चिकित्सा लंघन से अधिक सपफल होती है। इससे कायिक ही नहीं मानसिक दुर्बलता भी नष्ट होती है और सबलता आती है। इसे वाजीकरण चिकित्सा भी कहते है। पंचकर्म द्वारा परिशोधन क्रिया का होना अति आवश्यक है। इसमें रोगी की आयु के मतानुसार चिकित्सा है। शुक्रक्षय वालों के ब्रह्मचर्य रहने का संकेत है। अश्वगंधा, मूसली, विदारिकण्डा और गोखुरू बनौषधियों को दुग्ध-घृत के साथ सेवन करने से शक्ति बढती है। वृष्यगुटिका, ब्रह्मरसायन, च्यवनप्रास, अश्वगंधा रसायन, सि( मकरर्धक होता है। चरक ने यपनवस्ती और क्षिरासर्पी का परामर्श दिया है। पित्तज प्रकृति वाले लोगों को कुष्माण्डा रसायन और शतावरी रसायन का प्रयोग करना चाहिए। बीजोपघातक रोगी ब्राह्मीनी गुटिका का प्रयोग करें। शुक्रस्तम्भज को दुग्ध, आमलकी, भल्लातक पफल माजा और गोखुरू लाभकारी होता है। मर्मछेदज को असाध्य रोग माना गया है। लेकिन मर्म चिकित्सा में विम्बीकी पत्ती, काले तिल, अरण्ड के बीजों के समान मात्राा में लेकर दुग्ध-घी के साथ लें। जराजन्य स्थिति में आमलकी रसायन और शिलाजीत लाभकारी होता है। वाहकनलियों की गडबडी में आमलकी और लहसुन का प्रयोग किया जा सकता है। स्नायविक स्थिति उत्पन्न होने पर भैषज्य रत्नावली में औषधीय उपचार की सूची को पढे। ब्रह्ममकरमुष्ठी काम आती है। मधुमेह में विलासिनी बल्लभा का प्रयोग करें। यसदभस्म अति महत्वपूर्ण औषधि है। जो शुक्राणुओं की वृ( करती है।

नपुंसकता को जड से मिटाने के लिए आयुर्वेद में कई तरह के वाजीकरण योग भी दिये गये है। वनारीगुटिका प्रायः प्रयोग होता है २४० ग्राम मुकुन के बीजों को एक लीटर दूध में उबाल लें। खूब गाढा हो जाये तब शहर की मात्राा मिलाकर लें। गोक्षुरू चूर्ण का योग भी बडा लाभकारी सि( होता है। इसमें ईक्षुर, मश, कपिकच्चू और शतावरी को मिलाकर खरल कर लें। दिन में दूध के साथ दो बार प्रयोग करें। विलासिनी बल्लभरस का प्रयोग भी कुछ ऐसा ही है। १२ ग्राम की मात्राा म शु( पारद और गंधक को पीसकर पाउडर बना लें। इसमें २४ ग्राम धतूरे के बीज मिलाकर खरल सेवन करने से दुर्बलता नहीं रहती।

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